विश्वविद्यालय ऐसी जगह है जहाँ नए विचार पैदा होते हैं, जड़ों, तक पहुंचते हैं और लंबे और मजबूत होते हैं। यह एक अनूठी जगह है जिसमें ज्ञान का पूरा ब्रह्मांड समाहित होता है। यह वह जगह है जहाँ सृजनात्मक सोच अभिमुख होती है, परस्पर बातचीत करती है और नई वास्तविकताओं की सोच का निर्माण करती है। ज्ञान के अनुसरण में सच्चाई की स्थापित धारणाओं को चुनौती दी जाती है।
यह सब करने में सक्षम होने के लिए विश्वविद्यालयों को स्वायत्त निकाय बनने की जरूरत है। ये अपने डिजाईन और संगठन में भिन्न हैं जोकि अनूठी ऐतिहासिक और सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्थाओं को प्रतिबिंबित करता हैजिसमे वे आगे बढ़े हैं। यह भिन्नता उनके आस-पास की स्थितियों के साथ उनके जैविक संपर्क को दर्शाती है जो कि ना केवल भौतिक हैं बल्कि साथ-साथ सांस्कृतिक भी हैं। अनुसंधान तथा शिक्षा के माध्यम से ये ज्ञान तथा संस्कृति का सृजन, मूल्यांकन करतेहैं और इनमें उन्नति लाते हैं। राजनीतिक प्राधिकार और आर्थिक शक्ति का नैतिक और बौद्धिक स्वायतत्ता का सिद्धान्त विश्वविद्यालय की सोच में गहरा हो चुका है। यह स्वायतत्ता अनुसंधान तथा प्रशिक्षण की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करता है और यह उम्मीद की जाती है कि सरकारें और समाज इस मूलभूत सिद्धान्त का सम्मान करेंगे । अध्यापन और अनुसंधान को अविच्छेद होना होगा क्योंकि विश्वविद्यालय का काम युवा लोगों को ना केवल ज्ञान प्रदान करना है बल्कि उन्हें अपने स्वयं के ज्ञान के सृजन के लिए अवसर भी देना है। समाज के युवा दिमाग और दिल की सतत वचनबद्धता यह भी संकेत देती है कि विश्वविद्यालयों को पूरी तरह मिलकर समाज की सेवा करनी है और यह प्राप्त करने के लिए निरंतर शिक्षा में यथेष्ट निवेश अनिवार्य है।
भारत में उच्च शिक्षा को धीमे लेकिन बढ़ते हुए लोकतन्त्रीकरण का मतलब है कि विश्वविद्यालय अब विशिष्ट वर्ग के बच्चों या शिक्षित/व्यावसायिक मध्यम-श्रेणी के लिए और अधिक परिलक्षित नहीं रहा है। चूंकि समाज के अलग तबके से अधिक युवा विश्वविद्यालयों में प्रवेश ले रहे हैं वे उच्च शिक्षा को श्रेणी अवरोधक से आगे बढ़ने के माध्यम के तौर पर देखते हंै। फलस्वरूप विश्वविद्यालय शिक्षा को अपने आप में अब और अधिक सही तौर पर नहीं देखा जाता परन्तु जाॅब मार्किट को उच्च कक्षा में एक सोपान के तौर पर भी देखा जाता है जहाँ विद्यार्थी एक ठोस आर्थिक रिटर्न की उम्मीद करता है और तदनुरूप इस अवबोधन में आज के विश्वविद्यालयों को समाज की उभरती हुई आवश्यकताओं के अनुकुल होने की उम्मीद है। फिर भी स्नातकों की अंतरअनुशासनात्मक अनुभवों की पर्याप्त जानकारी होनी चाहिए जोकि एक विशेष जाॅब मार्किट की मांग में बदलावों को कायम रख सकता है। यशपाल समिति रिपोर्ट